शनिवार, 30 जुलाई 2011

दर्द-इ-जिगर

वो आये इतनी शिद्दत से मयखाने में ....
कि यार 'साखी' झलका जाम पैमाने में|
हम आज भी तन्हा काटते है कई शाम  यूँ मयखाने में...
बस किया इंतजार तेरा ,कुछ बात तो है मुझे जैसे दीवाने में|
वो आये इतनी शिद्दत से मयखाने में..

तुम कहो तो मयकदा छोड़ देंगे 'बागी' मेरे..
बस कोई दे दे अपना हाथ हमें घर तक लाने में|
तलाश रही हमें कि तुझ से बड़ा कोई गम दे जाये..
पर उम्र गुजर गयी यूँ तुझे 'पीने' में और भुलाने में|
वो आये इतनी शिद्दत से मयखाने में...
                                  ---ललित शर्मा 'बागी ' 



रविवार, 17 जुलाई 2011

ऐ खुदा..

आज फिर से मैं रोज-ऐ-रमजान कर लूँगा|
तू चाहे तो खुदा मैं अजान कर लूँगा |
ऐ खुदा तेरे बन्दे यहाँ दिलों को बांटते है फिर भी..
तेरी रहमतो से जिन्दगी गुलज़ार कर लूँगा|

मुझे यहाँ मसीहा दिखाई न  पड़ता है कोई,
जब  'धमाके ' होते है मेरे मुल्क में ...
हँसता है कोई ,रोता है कोई|
वो लाशों पर भी सियासत कर लेते है बड़े इन्तमिनान से,
ये लोग क्या जाने जब दर्द होता है कोई|

मैं तो मंदिरों में भी आराम कर लूँगा ,
मैं तो मस्जिदों में भी अजान कर लूँगा|
मैं तो एक आम आदमी हूँ मेरे मालिक,
मैं तो तेरी कायनात में आराम से काम कर लूँगा|
                                               -ललित शर्मा