रविवार, 17 जुलाई 2011

ऐ खुदा..

आज फिर से मैं रोज-ऐ-रमजान कर लूँगा|
तू चाहे तो खुदा मैं अजान कर लूँगा |
ऐ खुदा तेरे बन्दे यहाँ दिलों को बांटते है फिर भी..
तेरी रहमतो से जिन्दगी गुलज़ार कर लूँगा|

मुझे यहाँ मसीहा दिखाई न  पड़ता है कोई,
जब  'धमाके ' होते है मेरे मुल्क में ...
हँसता है कोई ,रोता है कोई|
वो लाशों पर भी सियासत कर लेते है बड़े इन्तमिनान से,
ये लोग क्या जाने जब दर्द होता है कोई|

मैं तो मंदिरों में भी आराम कर लूँगा ,
मैं तो मस्जिदों में भी अजान कर लूँगा|
मैं तो एक आम आदमी हूँ मेरे मालिक,
मैं तो तेरी कायनात में आराम से काम कर लूँगा|
                                               -ललित शर्मा